🙏 Dandvat Pranam 🙏
जय श्री चक्रधर स्वामी जी
श्रीचक्रधर स्वामी जी ने कहा एक दिन कार्तवीर्य (सहस्त्रार्जुन ) अपने सैनिक परिवारके साथ शिकारके लिए निकला । जंगलोंमें भटकते भटकते उसे प्यास लगी । उसका एक सेवक पानीकी खोजमें जमदाग्नि ऋषिके आश्रममें पहुँच गया । उस समय जमदाग्नि और उसकी पत्नी एकवीरा (रेणुका) दोनों चोसर खेल रहे थे । सेवकने उनसे कहा 'हमारा राजा प्यासा है, उसके लिए पानी चाहिए । ' एकवीराने अपने कानकी मैल निकाल कर उसकी एक बटलोई बनाई, पानीसे भरा और उस सेवकको दिया । सेवकने कहा, ' इतने पानीसे क्या होगा ? ' एकवीराने कहा, ' जाओ, पूरा हो जाएगा । ' लेकर जाते जाते वह बटलोई टूट गई और वहाँ पर पानी भरा एक सरोवर बन गया । तब राजा और उसके हाथी, घोड़े, सैनिक परिवार सहित सबकी प्यास मिट गयी ।
अब राजाको भूख लगी । उसके पास खानेके लिए कुछ भी शेष नहीं बचा था । उसने अपने सेवकको पुनः जमदाग्निके आश्रममें भेजा । उस सेवकने वहाँ जाकर कहा ' राजा भूखा है, उसके लिए भोजन चाहिए । ' एकवीराने कहा, ' जाओ, अपने हाथ-पाँव धोकर आओ, भोजन मिल जायेगा । ' एकवीराने स्वर्गसे इन्द्रकी कामधेनु गाय बुलायी । उस गायने अनेक प्रकारके पकवान तैयार कर दिए । राजा आया और परिवार सहित उसने भोजन किया । भोजन करनेके पश्चात राजाने कहा, 'ऐसे पकवान हमारे राज्यमें तो उपलब्ध नहीं हैं । एकवीरा बोली, ' ये सब पकवान इस गायसे प्राप्त हुए हैं । ' राजाने कहा, ' तो यह गाय हमें दे दो । ' वह बोली, ' यह इन्द्रकी कामधेनु है, तुम इसे ले जा सकते हो तो ले जाओ । ' राजा कामधेनुको पकड़कर ले जानेका प्रयत्न करने लगा तो गायने मल-मूत्र कर दिया, जिससे सैनिक, हाथी, और घोड़े उत्पन्न हो गये। दोनों पक्ष परस्पर जूझने लगे । राजा पराजित हो गया । उसने सोचा कि इस ब्राह्मणने यह सब कांड किया है इसलिए उसने जमदाग्नि ऋषि पर तलवारसे प्रहार किये । जमदाग्नि पर घातक प्रहार होते देख एकवीरा उस पर आ गिरी । उसपर भी राजाने अनेक प्रहार किये । राजा अपने सैनिक परिवारको लेकर चला गया । एकवीरा रोरोकर विलाप करने लगी । ' परशुराम दौड़कर आओ 'कहते हुए एकवीराने पुत्रको पुकारा । परशुराम उस समय कैलास पर्वत पर महादेवसे विद्या अध्ययन कर रहा था । एकवीराने जब पुकारा तो महादेवने उससे कहा, ' तुम्हारी माता पर विपत्ति आ गई है, वह तुम्हें बुला रही है ।' परशुराम कैलास पर्वत पर ही सारी घटनाका वृतांत जान चुका था । वहाँसे चलते समय वह प्रण करके निकला कि इस पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियरहित न कर दिया तो मेरा नाम परशुराम नहीं ।
जब परशुराम अपनी माता एकवीराके पास पहुँचा तो वह घायल हुई तड़प रही थी, जबकि जमदाग्नि घायल होकर प्राण त्याग चुका था । एकवीराने देह छोडनेसे पूर्व परशुरामसे कहा 'श्री दत्तात्रेयप्रभुजीको आचार्य बनाकर कोरीभूमिमें मेरा अंतिम संस्कार करना ।' परशुरामने पूछा ' श्रीदत्तात्रेयप्रभुजीको मैं कैसे पहिचानूँगा ?' 'उनके दर्शन होते ही सूखे काष्टकी बहँगी(काँवर)में से अंकुर निकल आयेंगे ' इतना कहकर माता एकवीराने देहत्याग कर दिया ।
परशुरामने माता-पिताके शरीरोंको एक काँवर (बहँगी)के दोनों ओर रखा और उसे कंधो पर लिए वन-उपवन, पर्वत-पहाड़ चारों ओर बहुत घूमा । अंतमें जब वह सह्याद्रि पर्वत पर पहुंचा तो उसे सामनेकी ओर से श्रीदत्तात्रेयप्रभुजी शिकारी(पारधी) वेशमें आते हुए दिखाई दिये । उन्होंने छपाई वाला रेशमी वस्त्र कमर (कटिप्रदेश)में धारणकर रखा था । बायें श्रीकरमें शिकारी कुत्तोंकी जोड़ी और बगलमें घटिका पात्र, दायें श्रीकरमें माँस और सुराकी सुराही, श्रीमुकट पर रस्सीसे बनी टोपी, श्री चरणोंमें दोतल्ले पादत्राण धारणकर रखे थे । उनके साथ एक महिला थी । वह छापे हुए रेशमी वस्त्रकी आगेकी ओर चुन्नट डाले साड़ी(लुगड़ा) और उसीके साथकी चोली पहिने थी । चोलीकी बाजुओंमें गाँठे लगी थीं । उसके केश खुले थे और पाँवोंमें चप्पल पहिने थी। परशुरामने उन्हें देखा तो उसके सुखे काष्ठकी काँवडमें अंकुर नीकल आये । उसने काँवड़ नीचे रख दी और उन्हें दंडवते डालीं । परंतु श्रीदत्तात्रेयप्रभुजी उसे मना करते रहे यह क्या ? तुम ऋषिपुत्र हो, और हम पारधी हैं । यह कहकर श्रीदत्तात्रेयप्रभुजी बारबार निराकरण करते रहे । परशुराम विनीत भावसे प्रार्थना करता रहा । श्रीदत्तात्रेयप्रभुजी विनती स्वीकार नहीं कर रहे थे । साथमें जो आउसा थीं उन्होेंने विनतीकी तब श्रीदत्तात्रेयप्रभुजीने परशुरामकी प्रार्थना स्वीकार की । उसके पश्चात श्रीदत्तात्रेयप्रभुजीने कहा ' परशुराम एकवीराको स्नान करानेके लिए सर्व तीर्थोंसे जल लाना होगा ।' परशुरामने विनती की ' जी जी! आपके श्रीचरणोंमें ही सर्वतीर्थ हैं । '
तब श्रीदत्तात्रेय प्रभु जी ने एक स्थान पर चिन्ह लगाया और परशुराम से कहा ' यहाँ बाण मारो ।' परशुराम द्वारा बाण मारे जाने पर वहाँसे निर्मल पानीका झरना फूट पड़ा । श्रीदत्तात्रेय प्रभु जी ने उसमें अपने श्रीचरणका अंगूठा प्रक्षालन किया । इस प्रकार उस जल को सर्वतीर्थका महत्व प्राप्त करा दिया । श्री दत्तात्रेय प्रभु जीकी आज्ञासे परशुरामने उस पवित्र जल से माता एकवीराको स्नान कराया । फिर उनकी आज्ञा और आचार्यत्वमें कोरीभूमिमें माता एकवीराका अंतिम संस्कार कराया । श्री दत्तात्रेय प्रभु जी ने उस स्थान पर एक पाषाण रखवाकर सुरा(मद्य)से उसका अभिषेक (स्नान) किया और माँसका उपहार लिखाया । उस पाषाण प्रतिमाको ' भोग पाव ' (तेरा पूजन अर्चन होता रहे ) यह वर दिया।
महदाईसाजीने पूछा ' जी जी ! साथमें जो आउसा थी वह कौन थी ? ' श्रीस्वामीजीने कहा वह परमेश्वरकी मुख्य शक्ति मायामूर्ति थी।
जय श्री दत्तात्रेय प्रभु जी
🙏 जय श्री कृष्ण जी 🙏